उपन्यास >> रेहन पर रग्घू रेहन पर रग्घूकाशीनाथ सिंह
|
4 पाठकों को प्रिय 408 पाठक हैं |
प्रस्तुत है पुस्तक रेहन पर रग्घू ......
Rehan Par Ragghu
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उनकी (काशीनाथ सिंह की) कहानियों के ज्यादातर पात्र बुनियादी तौर पर ग्राम के निकले हुए वे पात्र है जो शहर आए हैं, और अपने अस्तित्व के लिए संग्राम कर रहे हैं। वे पात्र ग्रामीण जमीन पर खड़े हैं। उनके भीतर शहरी धूर्तता और बेईमानी नहीं आ पाई है। स्वयं काशीनाथ के व्यक्तित्व की एक खूबी मुझे भाती है, वह है उनका ठेठ ग्रामीण व्यक्तित्व। वे जमीन के आदमी है। और आदमी से ही जिन्दगी को समझते है। काशी में पेंच नहीं है। उनसे मेरी दो मुलाकाते होती हैं- दोनों कोलकाता में। पहली बार कोलकाता पुस्तक मेले में। शहर में रहते हुए भी ग्रामीण संवेदना, भोलापन और सच्चाई बचाकर रख पाना और शहरी विकृतियों से अपने को बचाकर रखना बड़ी बात है। काशीनाथ पक्षी की तरह हैं, वृक्ष की तरह हैं जिसे प्रकृति ने गढा, ग्राम्य परिवेश ने गढ़ा। काशी में कृत्रिमता नहीं है। वे सीधे-सादे है ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तरह। काशीनाथ को देख मुझे विभूतिभूषण वंद्योपाध्याय याद आते हैं। उनकी रचनाओं में आम भारतीय और उसका संग्राम है। काशी की रचनाओं में भी यह भारतीयत्व है। हममें कितने लोग इस भारतीयत्व को अर्जित कर पाते हैं ?
रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है।
भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है।
उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है।
रेहन पर रग्घू नये युग की वास्तविकता की बहुस्तरीय गाथा है। इसमें उपभोक्तावाद की क्रूरताओं का विखंडन है ही, साथ में शोषित प्रताड़ित जातियों के सकारात्मक उभार और नयी स्त्री की शक्ति एवं व्यथा का दक्ष चित्रांकन भी है। दरअसल रेहन पर रग्घू में वास्तविकताओं, चरित्रों, लोकेल, उपकथाओं आदि का ऐसा सधा हुआ अकाट्य अन्तर्गुम्फन है कि उसे एक प्रौढ़ रचनात्मकता के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। देशज सच्चाईयों, कल्पना, काव्यात्मकता, झीनी दार्शनिकता का सहमेल उपन्यास को मूल्यवान आभा से समृद्ध बनाता है।
संक्षेप में कहें, रेहन पर रग्घू बीते दो दशक के यथार्थ का ऐसा औपन्यासिक रूपान्तरण है जो काशीनाथ सिंह और हिन्दी उपन्यास दोनों को एक नयी गरिमा प्रदान करता है।
रेहन पर रग्घू प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह की रचना-यात्रा का नव्य शिखर है।
भूमंडलीकरण के परिणामस्वरूप संवेदना, सम्बन्ध और सामूहिकता की दुनिया मे जो निर्मम ध्वंस हुआ है- तब्दीलियों का जो तूफान निर्मित हुआ है- उसका प्रामाणिक और गहन अंकन है रेहन पर रग्घू। यह उपन्यास वस्तुतः गांव, शहर, अमेरिका तक के भूगोल में फैला हुआ अकेले और निहत्थे पड़ते जा रहे है समकालीन मनुष्य का बेजोड़ आख्यान है।
उपन्यास में केन्द्रीय पात्र रघुनाथ की व्यवस्थित और सफल ज़िन्दगी चल रही है। सब कुछ उनकी योजना और इच्छा के मुताबिक। अचानक कुछ ऐसा यथार्थ इतना महत्वाकांक्षी, आक्रामक, हिंस्र है कि मनुष्यता की तमाम सारी आत्मीय कोमल अच्छी चीजें टूटने बिखरने, बरबाद होने लगती हैं। इस महाबली आक्रान्ता के प्रतिरोध का जो रास्ता उपन्यास के अन्त में आख्तियार किया गया वह न केवल विलक्षण और अचूक है बल्कि रेहन पर रग्घू को यादगार व्यंजनाओं से भर देता है।
रेहन पर रग्घू नये युग की वास्तविकता की बहुस्तरीय गाथा है। इसमें उपभोक्तावाद की क्रूरताओं का विखंडन है ही, साथ में शोषित प्रताड़ित जातियों के सकारात्मक उभार और नयी स्त्री की शक्ति एवं व्यथा का दक्ष चित्रांकन भी है। दरअसल रेहन पर रग्घू में वास्तविकताओं, चरित्रों, लोकेल, उपकथाओं आदि का ऐसा सधा हुआ अकाट्य अन्तर्गुम्फन है कि उसे एक प्रौढ़ रचनात्मकता के रूप में दर्ज किया जाना चाहिए। देशज सच्चाईयों, कल्पना, काव्यात्मकता, झीनी दार्शनिकता का सहमेल उपन्यास को मूल्यवान आभा से समृद्ध बनाता है।
संक्षेप में कहें, रेहन पर रग्घू बीते दो दशक के यथार्थ का ऐसा औपन्यासिक रूपान्तरण है जो काशीनाथ सिंह और हिन्दी उपन्यास दोनों को एक नयी गरिमा प्रदान करता है।
रेहन पर रग्घू
1
कभी नहीं भूलेगी जनवरी की वह शाम !
शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर ! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया और खाकर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवाजे भड़ भड़ करते हुए अपने आप बन्द होने लगे खुलने लगे। सिटकनी छिटक कर कहीं गिरी, ब्यौंडे कहीं गिरे और धरती हिल उठी हो, दीवारें काँपने लगी हों। आसमान काला पड़ गया और चारों ओर घुप्प अँधेरा।
वे उठ बैठें !
आँगन और लान बड़े-बड़े ओलों और बर्फ के पत्थरों से पट गये और बारजे की रेलिंग टूट कर दूर जा गिरी-धड़ाम ! उसके बाद जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो वह पानी की बूँदें नहीं थीं-जैसे पानी की रस्सियाँ हो जिन्हें पकड़ कोई चाहे तो वहाँ तक चला जाय जहाँ से ये छोड़ी या गिराई जा रही हों। बादल लगातार गड़गड़ा रहे थे- दूर नहीं, सिर के ऊपर जैसे बिजली तड़क रही थी; दूर नही, खिड़कियों से अन्दर आँखों में।
इकहत्तर साल के बूँढे रघुनाथ भौंचक ! यह अचानक क्या हो गया ? क्या हो रहा है ?
उन्होंने चेहरे से बन्दरटोपी हटाई, बदन पर पड़ी रजाई अलग की और खिड़की के पास खड़े हो गए !
खिड़की के दोनों पल्ले गिटक के सहारे खुले थे और वे बाहर देख रहे थे।
घर के बाहर ही कदम्ब का विशाल पेड़ था लेकिन उसका पता नहीं चल रहा था- अँधेरे के कारण, घनघोर बारिश के कारण ! छत के डाउन पाइप से जलधारा गिर रही थी और उसका शोर अलग से सुनाई पड़ रहा था !
ऐसा मौसम और ऐसी बारिश और ऐसी हवा उन्होंने कब देखी थी ? दिमाग पर जोर देने से याद आया-साठ बासठ साल पहले ! वे स्कूल जाने लगे थे- गाँव से दो मील दूर ! मौसम खराब देख कर मास्टर ने समय से पहले ही छुट्टी दे दी थी। वे सभी बच्चों के साथ बगीचे में पहुँचे ही थे कि अंधड़, और बारिश और अंधेरा ! सबने आम के पेड़ों के तनों की आड़ लेनी चाही लेकिन तूफान ने उन्हें तिनके की तरह उड़ाया और बगीचे से बाहर धान के खम्भों में ले जाकर पटका ! किसी के बस्ते और किताब कापी का पता नहीं ! बारिश की बूँदें उनके बदन में गोली के छर्रों की तरह लग रही थीं और वे चीख चिल्ला रहे थे। अंधड़ थम जाने-के बाद-जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाँव से लोग लालटेन और चोरबत्ती लेकर निकले थे ढूँढ़ने !
यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिन्दगी क्या ?
और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में हैं।
कितने दिन हो गये बारिश में भीगें ?
कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए ?
कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे ?
कितने दिन हो गये अंजोरियों रात में मटरगश्ती किए ?
कितने दिन हो गये ठंठ में ठिठुर कर दाँत किटकिटाए ?
क्या ये इस लिये होते है कि हम इनसे बच के रहे ? बच बचा के चले ? या इसलिये कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएँ, सिर माथे पर बिठाएँ ?
हम इनसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये हमारे शत्रु है ! क्यों कर रहे है ऐसा ?
इधर एक अर्से से रघुनाथ को लग रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब नहीं रहेंगे और यह धरती रह जाएगी ! वे चले जाएगे और इस धरती का वैभव, उसका ऐश्वर्य, इसका सौन्दर्य- ये बादल, ये धूप, पेड़ पौधे, ये फसलें, ये नदी नाले, कछार जंगल पहाड़ और यह सारा कुछ यहीं छूट जाएगा ! वे यह सारा कुछ अपनी आँखों में बसा लेना चाहते है। जैसे वे भले चल जाएँ आँखें रह जाएगी; त्वचा पर हर चीज की थाप सोख लेना चाहते हैं जैसे त्वचा केचुल की तरह यहीं छूट जाएगी और उसका स्पर्श उन तक पहुँचाती रहेगी !
उन्हें लग रहा था कि बहुत दिन नहीं बचे है उनके जाने में ! मुमकिन है वह दिन कल ही हो, जब उनके लिए सूरज ही न उगे। लगेगा तो जरूर, लेकिन उसे दूसरे देखेंगे-वे नहीं ! क्या यह सम्भव नहीं है कि वे सूरज को बाँध कर अपने साथ ही लिए जाएँ – न रहे, न उगे, न कोई और देखे ! लेकिन एक सूरज समूची धरती तो नहीं, वे किस चीज को बाँधेगे और किस-किस को देखने से रोकेंगे ?
उनकी बाहे इतनी लम्बी क्यों नहीं हो जातीं कि वे उसमें सारी धरती समेट लें और मरें या जिएँ तो सबके साथ !
लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारे जा रहा था- कल तक कहाँ था वह प्यार ? धरती से प्यार की ललक ? यह तपड़ ? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज चाँद थे ! नदी, झरने सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे ! कहाँ थी यह तड़प ? फुर्सत थी इन्हें देखने की ? आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव में आ रही है तो बाहर जिन्दगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?
सच-सच बताओं रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था कि एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका तक फैल जाओगे ? चौके में पीढ़ा पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खाने वाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे ?
लेकिन रघुनाथ यह सब नहीं सुन रहे थे। यह आवाज बाहर की गड़गड़ाहट और बारिश के शोर में दब गई थी। वे अपने वश में नहीं थे। उनकी नजर गई कोने में खड़ी छड़ी और छाता पर ! जाड़े की ठंड यों भी भयानक थी और ऊपर से ओले औऱ बारिश। हिम्मत जवाब दे रही थी फिर भी उन्होंने दरवाजा खोला या वे वहां खड़े हुए और अपने आप खुल गया ! भींगी हवा का सनसनाता रेला अन्दर घुसा और और वे डर कर पीछे हट गए ! फिर साहस बटोर और बाहर निकलने की तैयारी शुऱू की ! पूरी बाँह का थर्मोकोट पहना, उस पर सूती शर्ट, फिर उस पर स्वेटर, ऊपर से कोट। ऊनी पैण्ट पहले ही पहन चुके थे। यही सुबह जाड़े में पहन कर टहलने की उनकी पोशाक थी ! तो मफलर भी लेकिन उससे ज्यादा जरूरी था-गमछा ! बारिश को देखते हुए ! जैसे जैसे कपड़े भींगते जाएँगे, वे एक एक कर उतारते और फेंकते चले जाएँगे और अन्त में साथ रह जाएगा यही गमछा !
वे अपनी साज सज्जा से अब पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन नंगे बिना बालों के सिर को लेकर दुविधा में -कनटोप ठीक रहेगा या गमछा बाँध लें।
ओले जो गिरने थे, शुरू में ही गिर चुके थे, अब उनका कोई अंदेशा नहीं !
उन्होंने गमछे को गले के चारों ओर लपेटा और नंगे सिर बाहर आए ! अब न कोई रोकने वाला, न टोकने वाला। उन्होंने कहा -‘‘हे मन ! चलो, लौट कर आए तो वाह वाह ! न आए तो वाह वाह !’’
बर्फाली बारिश की अंधेरी सुरंग में उतरने से पहले उन्होंने यह नहीं सोचा था कि भींगे कपड़ों के वजन के साथ एक कदम भी आगे बढ़ना उनके लिए मुश्किल होगा।
वे अपने कमरे से तो निकल आए लेकिन गेट से बाहर नहीं जा सके ! छाता खुलने से पहले जो बूँद उनकी नंगी, खल्वाट खोपड़ी पर गिरी, उसने इतना वक्त ही नहीं दिया कि वे समझ सकें यह बिजली तड़की है या लोहे की कील है जो सिर में छेद करती हुई अन्दर ही अन्दर तलवे तक ठुँक गयी है ! उनका पूरा बदन झनझना उठा। वे बौछार के डर से बैठ गए लेकिन भींगने से नहीं बच सके। जब तक छाता खुले, तब तक वे पूरी तरह भींग चुके थे !
अब वे फंस चुके थे-बर्फीली हवाओं और बौछारों के बीच। हवा तिनके की तरह उन्हें ऊपर उड़ा रही थी और बौछारें जमीन पर पटक रही थीं ! उन्हें इतना ही याद है कि लोहे के गेट पर वेकई बार बार भहराकर गिरे और यह सिलसिला सहसा तब खत्म हुआ जब छाता की कमानियाँ टूट गईं और वह उड़ता हुआ गेट के बाहर गायब हो गया। अब उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे हवा जगह जगह से नोच रही हो और पानी दाग रहा हो-जलते हुए सूरज से !
अचेत होकर गिरने से पहले उनके दिमाग में ज्ञानदत्त चौबे कौंधा-उनका मित्र ! उसने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश कीं-पहली बार लोहता स्टेशन के पास रेल की पटरी पर नगर से दूर निर्जन जहाँ किसी का आना जाना नहीं था ! समय उसने सामान्य पैसेंजर या मालगाड़ी के नहीं, एक्सप्रेस या मेल का चुना था कि जो हो न हो, ‘खट’ से हो, पलक झपकते, ताकि तकलीफ न हो। वह पटरी पर ही लेटा था कि मेल आता दिखा ! जाने क्यों, उसमें जीवन से मोह पैदा हुआ और उठकर भागने को हुआ कि घुटनों के पास से एक पैर खचाक्।
यह मरने से ज्यादा बुरा हुआ ! बैसाखियों का सहारा और घर वालों की गालियाँ और दुत्कार ! एक बार फिर आत्महत्या का जुनून सवार हुआ उस पर ! अबकी उसने सिवान का कुआँ चुना ! उसने बैसाखी फेंक छलांग लगाई और पानी में छपाक कि बरोह पकड़ में आ गई ! तीन दिन बिना खाए पीए चिल्लाता रहा कुएँ में-और निकला तो दूसरे टूटे पैर के साथ !
आज वही ज्ञानदत्त-बिना पैरों का ज्ञानदत्त-चौराहे पर भीख माँगता है। मरने की ख्वाहिश ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा ! मगर यह कम्बख़्त ज्ञानदत्त उनके दिमाग में आया ही क्यों ? वे मरने के लिए तो निकले नहीं थे ? निकले थे बूँदों के लिए, हवा के लिए। उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है। जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए।
शाम तो मौसम ने कर दिया था वरना थी दोपहर ! थोड़ी देर पहले धूप थी। उन्होंने खाना खाया और खाकर अभी अपने कमरे में लेटे ही थे कि सहसा अंधड़। घर के सारे खुले खिड़की दरवाजे भड़ भड़ करते हुए अपने आप बन्द होने लगे खुलने लगे। सिटकनी छिटक कर कहीं गिरी, ब्यौंडे कहीं गिरे और धरती हिल उठी हो, दीवारें काँपने लगी हों। आसमान काला पड़ गया और चारों ओर घुप्प अँधेरा।
वे उठ बैठें !
आँगन और लान बड़े-बड़े ओलों और बर्फ के पत्थरों से पट गये और बारजे की रेलिंग टूट कर दूर जा गिरी-धड़ाम ! उसके बाद जो मूसलाधार बारिश शुरू हुई तो वह पानी की बूँदें नहीं थीं-जैसे पानी की रस्सियाँ हो जिन्हें पकड़ कोई चाहे तो वहाँ तक चला जाय जहाँ से ये छोड़ी या गिराई जा रही हों। बादल लगातार गड़गड़ा रहे थे- दूर नहीं, सिर के ऊपर जैसे बिजली तड़क रही थी; दूर नही, खिड़कियों से अन्दर आँखों में।
इकहत्तर साल के बूँढे रघुनाथ भौंचक ! यह अचानक क्या हो गया ? क्या हो रहा है ?
उन्होंने चेहरे से बन्दरटोपी हटाई, बदन पर पड़ी रजाई अलग की और खिड़की के पास खड़े हो गए !
खिड़की के दोनों पल्ले गिटक के सहारे खुले थे और वे बाहर देख रहे थे।
घर के बाहर ही कदम्ब का विशाल पेड़ था लेकिन उसका पता नहीं चल रहा था- अँधेरे के कारण, घनघोर बारिश के कारण ! छत के डाउन पाइप से जलधारा गिर रही थी और उसका शोर अलग से सुनाई पड़ रहा था !
ऐसा मौसम और ऐसी बारिश और ऐसी हवा उन्होंने कब देखी थी ? दिमाग पर जोर देने से याद आया-साठ बासठ साल पहले ! वे स्कूल जाने लगे थे- गाँव से दो मील दूर ! मौसम खराब देख कर मास्टर ने समय से पहले ही छुट्टी दे दी थी। वे सभी बच्चों के साथ बगीचे में पहुँचे ही थे कि अंधड़, और बारिश और अंधेरा ! सबने आम के पेड़ों के तनों की आड़ लेनी चाही लेकिन तूफान ने उन्हें तिनके की तरह उड़ाया और बगीचे से बाहर धान के खम्भों में ले जाकर पटका ! किसी के बस्ते और किताब कापी का पता नहीं ! बारिश की बूँदें उनके बदन में गोली के छर्रों की तरह लग रही थीं और वे चीख चिल्ला रहे थे। अंधड़ थम जाने-के बाद-जब बारिश थोड़ी कम हुई तो गाँव से लोग लालटेन और चोरबत्ती लेकर निकले थे ढूँढ़ने !
यह एक हादसा था और हादसा न हो तो जिन्दगी क्या ?
और यह भी एक हादसा ही है कि बाहर ऐसा मौसम है और वे कमरे में हैं।
कितने दिन हो गये बारिश में भीगें ?
कितने दिन हो गए लू के थपेड़े खाए ?
कितने दिन हो गए जेठ के घाम में झुलसे ?
कितने दिन हो गये अंजोरियों रात में मटरगश्ती किए ?
कितने दिन हो गये ठंठ में ठिठुर कर दाँत किटकिटाए ?
क्या ये इस लिये होते है कि हम इनसे बच के रहे ? बच बचा के चले ? या इसलिये कि इन्हें भोगें, इन्हें जिएँ, इनसे दोस्ती करें, बतियाएँ, सिर माथे पर बिठाएँ ?
हम इनसे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे ये हमारे शत्रु है ! क्यों कर रहे है ऐसा ?
इधर एक अर्से से रघुनाथ को लग रहा था कि वह दिन दूर नहीं जब नहीं रहेंगे और यह धरती रह जाएगी ! वे चले जाएगे और इस धरती का वैभव, उसका ऐश्वर्य, इसका सौन्दर्य- ये बादल, ये धूप, पेड़ पौधे, ये फसलें, ये नदी नाले, कछार जंगल पहाड़ और यह सारा कुछ यहीं छूट जाएगा ! वे यह सारा कुछ अपनी आँखों में बसा लेना चाहते है। जैसे वे भले चल जाएँ आँखें रह जाएगी; त्वचा पर हर चीज की थाप सोख लेना चाहते हैं जैसे त्वचा केचुल की तरह यहीं छूट जाएगी और उसका स्पर्श उन तक पहुँचाती रहेगी !
उन्हें लग रहा था कि बहुत दिन नहीं बचे है उनके जाने में ! मुमकिन है वह दिन कल ही हो, जब उनके लिए सूरज ही न उगे। लगेगा तो जरूर, लेकिन उसे दूसरे देखेंगे-वे नहीं ! क्या यह सम्भव नहीं है कि वे सूरज को बाँध कर अपने साथ ही लिए जाएँ – न रहे, न उगे, न कोई और देखे ! लेकिन एक सूरज समूची धरती तो नहीं, वे किस चीज को बाँधेगे और किस-किस को देखने से रोकेंगे ?
उनकी बाहे इतनी लम्बी क्यों नहीं हो जातीं कि वे उसमें सारी धरती समेट लें और मरें या जिएँ तो सबके साथ !
लेकिन एक मन और था रघुनाथ का जो उन्हें धिक्कारे जा रहा था- कल तक कहाँ था वह प्यार ? धरती से प्यार की ललक ? यह तपड़ ? कल भी यही धरती थी। ये ही बादल, आसमान, तारे, सूरज चाँद थे ! नदी, झरने सागर, जंगल, पहाड़ थे। ये ही गली, मकान, चौबारे थे ! कहाँ थी यह तड़प ? फुर्सत थी इन्हें देखने की ? आज जब मृत्यु बिल्ली की तरह दबे पाँव में आ रही है तो बाहर जिन्दगी बुलाती हुई सुनाई पड़ रही है ?
सच-सच बताओं रघुनाथ, तुम्हें जो मिला है उसके बारे में कभी सोचा था कि एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका तक फैल जाओगे ? चौके में पीढ़ा पर बैठ कर रोटी प्याज नमक खाने वाले तुम अशोक बिहार में बैठ कर लंच और डिनर करोगे ?
लेकिन रघुनाथ यह सब नहीं सुन रहे थे। यह आवाज बाहर की गड़गड़ाहट और बारिश के शोर में दब गई थी। वे अपने वश में नहीं थे। उनकी नजर गई कोने में खड़ी छड़ी और छाता पर ! जाड़े की ठंड यों भी भयानक थी और ऊपर से ओले औऱ बारिश। हिम्मत जवाब दे रही थी फिर भी उन्होंने दरवाजा खोला या वे वहां खड़े हुए और अपने आप खुल गया ! भींगी हवा का सनसनाता रेला अन्दर घुसा और और वे डर कर पीछे हट गए ! फिर साहस बटोर और बाहर निकलने की तैयारी शुऱू की ! पूरी बाँह का थर्मोकोट पहना, उस पर सूती शर्ट, फिर उस पर स्वेटर, ऊपर से कोट। ऊनी पैण्ट पहले ही पहन चुके थे। यही सुबह जाड़े में पहन कर टहलने की उनकी पोशाक थी ! तो मफलर भी लेकिन उससे ज्यादा जरूरी था-गमछा ! बारिश को देखते हुए ! जैसे जैसे कपड़े भींगते जाएँगे, वे एक एक कर उतारते और फेंकते चले जाएँगे और अन्त में साथ रह जाएगा यही गमछा !
वे अपनी साज सज्जा से अब पूरी तरह आश्वस्त थे लेकिन नंगे बिना बालों के सिर को लेकर दुविधा में -कनटोप ठीक रहेगा या गमछा बाँध लें।
ओले जो गिरने थे, शुरू में ही गिर चुके थे, अब उनका कोई अंदेशा नहीं !
उन्होंने गमछे को गले के चारों ओर लपेटा और नंगे सिर बाहर आए ! अब न कोई रोकने वाला, न टोकने वाला। उन्होंने कहा -‘‘हे मन ! चलो, लौट कर आए तो वाह वाह ! न आए तो वाह वाह !’’
बर्फाली बारिश की अंधेरी सुरंग में उतरने से पहले उन्होंने यह नहीं सोचा था कि भींगे कपड़ों के वजन के साथ एक कदम भी आगे बढ़ना उनके लिए मुश्किल होगा।
वे अपने कमरे से तो निकल आए लेकिन गेट से बाहर नहीं जा सके ! छाता खुलने से पहले जो बूँद उनकी नंगी, खल्वाट खोपड़ी पर गिरी, उसने इतना वक्त ही नहीं दिया कि वे समझ सकें यह बिजली तड़की है या लोहे की कील है जो सिर में छेद करती हुई अन्दर ही अन्दर तलवे तक ठुँक गयी है ! उनका पूरा बदन झनझना उठा। वे बौछार के डर से बैठ गए लेकिन भींगने से नहीं बच सके। जब तक छाता खुले, तब तक वे पूरी तरह भींग चुके थे !
अब वे फंस चुके थे-बर्फीली हवाओं और बौछारों के बीच। हवा तिनके की तरह उन्हें ऊपर उड़ा रही थी और बौछारें जमीन पर पटक रही थीं ! उन्हें इतना ही याद है कि लोहे के गेट पर वेकई बार बार भहराकर गिरे और यह सिलसिला सहसा तब खत्म हुआ जब छाता की कमानियाँ टूट गईं और वह उड़ता हुआ गेट के बाहर गायब हो गया। अब उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे हवा जगह जगह से नोच रही हो और पानी दाग रहा हो-जलते हुए सूरज से !
अचेत होकर गिरने से पहले उनके दिमाग में ज्ञानदत्त चौबे कौंधा-उनका मित्र ! उसने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश कीं-पहली बार लोहता स्टेशन के पास रेल की पटरी पर नगर से दूर निर्जन जहाँ किसी का आना जाना नहीं था ! समय उसने सामान्य पैसेंजर या मालगाड़ी के नहीं, एक्सप्रेस या मेल का चुना था कि जो हो न हो, ‘खट’ से हो, पलक झपकते, ताकि तकलीफ न हो। वह पटरी पर ही लेटा था कि मेल आता दिखा ! जाने क्यों, उसमें जीवन से मोह पैदा हुआ और उठकर भागने को हुआ कि घुटनों के पास से एक पैर खचाक्।
यह मरने से ज्यादा बुरा हुआ ! बैसाखियों का सहारा और घर वालों की गालियाँ और दुत्कार ! एक बार फिर आत्महत्या का जुनून सवार हुआ उस पर ! अबकी उसने सिवान का कुआँ चुना ! उसने बैसाखी फेंक छलांग लगाई और पानी में छपाक कि बरोह पकड़ में आ गई ! तीन दिन बिना खाए पीए चिल्लाता रहा कुएँ में-और निकला तो दूसरे टूटे पैर के साथ !
आज वही ज्ञानदत्त-बिना पैरों का ज्ञानदत्त-चौराहे पर भीख माँगता है। मरने की ख्वाहिश ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा ! मगर यह कम्बख़्त ज्ञानदत्त उनके दिमाग में आया ही क्यों ? वे मरने के लिए तो निकले नहीं थे ? निकले थे बूँदों के लिए, हवा के लिए। उन्होंने नतीजा निकाला कि जीवन के अनुभव से जीवन बड़ा है। जब जीवन ही नहीं, तो अनुभव किसके लिए।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book